गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 339

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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भ्रमति भवानवला-कवलाय वनेषु किमत्र विचित्रम्।
प्रथयति पूतनिकैव वधू-वध-निर्दय-बाल-चरित्रम्॥
हरि हरि याहि माधव..... ॥7॥[1]

अनुवाद- आप अबलाओं का बध करने के लिए ही वन-वन में भ्रमण कर रहे हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है! बाल्य-चरित्र में ही आपने पूतना का वध करके अपने निर्दय निष्ठुर स्वभाव का परिचय दिया है, नारीवध परायणता तो आपके चरित्र में है ही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [न वञ्चयाम्यहं त्वमेव मुधा शंकसे इत्यत आह]- भवान् अवला-कवलाय (अवलानां कवलाय ग्रासाय कान्तावाधायेति यावत्) वनेषु भ्रमति अत्र [विषये] किं विचित्रं [न किमपीत्यर्थ:]; [अत्र उदाहरणमाह]- पूतनिका (पूतना) एव वधु-वध-निर्दय-बालचरित्रं (वधुवधे नारीहत्यायां निर्दयं बालचरित्र) [कियत्] प्रथयति (विस्तारयति) [नतु सर्वमित्यर्थ:]; [बाल्ये चेदेवं कैशोरे किमत्र विचित्रमिति भाव:] ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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