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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
सप्तदश: सन्दर्भ:
17. गीतम्
भ्रमति भवानवला-कवलाय वनेषु किमत्र विचित्रम्। अनुवाद- आप अबलाओं का बध करने के लिए ही वन-वन में भ्रमण कर रहे हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है! बाल्य-चरित्र में ही आपने पूतना का वध करके अपने निर्दय निष्ठुर स्वभाव का परिचय दिया है, नारीवध परायणता तो आपके चरित्र में है ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [न वञ्चयाम्यहं त्वमेव मुधा शंकसे इत्यत आह]- भवान् अवला-कवलाय (अवलानां कवलाय ग्रासाय कान्तावाधायेति यावत्) वनेषु भ्रमति अत्र [विषये] किं विचित्रं [न किमपीत्यर्थ:]; [अत्र उदाहरणमाह]- पूतनिका (पूतना) एव वधु-वध-निर्दय-बालचरित्रं (वधुवधे नारीहत्यायां निर्दयं बालचरित्र) [कियत्] प्रथयति (विस्तारयति) [नतु सर्वमित्यर्थ:]; [बाल्ये चेदेवं कैशोरे किमत्र विचित्रमिति भाव:] ॥7॥
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