गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 328

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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इस प्रकार दोषारोप और तिरस्कार कर पुन: असन्तुष्ट होकर कहने लगीं हे केशव! चले जाओ! प्रशस्त हैं केश जिसके, उसमें अनुरक्त रहने वाले यह 'केशव' शब्द की व्युत्पत्ति होती है। आप किसी केशसंस्कारवती स्वैरिणी में रत रहें यहाँ 'केशव' शब्द में व्य है। अत: हे केशव अर्थात् हे बहुबल्लभ! मुझ एक-परायणा से इस कैतववाद से क्या प्रयोजन छल-वाक्य मत बोलो। मुझ दु:खी में रोष क्यों है, यदि यह आशंका करते हो, तो सुनो ऐसा नहीं है। हे सरसीसहलोचन! अर्थात् कुमुदलोचन जो तुम्हारा विषाद हर लेती है, उसी (प्रिया, बहुबल्लभ) का अनुसरण करो। अनुरूपका अनुरूपा में ही अनुरूप प्रेम होता है।

श्लोक में 'सरसीरुहलोचन' शब्द कहा गया है। सरसीरुह शब्द 'कमल' एवं 'कुमुद' दोनों का समान रूप से वाचक है। श्रीकृष्ण का कमललोचनत्व प्रख्यात है, किन्तु श्रीराधा को तो यहाँ सरसीरुह शब्द से कुमुदरूपी अर्थ ही अभिप्रेत है। कुमुद रात्रिभर विकसित रहता है और दिवस को देखकर मुकुलित हो जाता है। श्रीकृष्ण भी चन्द्रवंशी हैं, अत: रात किसी नायिका के साथ चन्द्रमा के समान ही जागकर बितायी है। पुन: श्रीराधा श्रीकृष्ण से कहती हैं- तुम्हारी आँखों में अनुराग अभी भी दिखायी दे रहा है, राग की लालिमारूपी दोष अभी भी विद्यमान है, तत्कालीन उदित श्रृंगार रस का अनुरागमय अभिनिवेश अभी भी आँखों में लक्षित हो रहा है। जैसा चित्त वैसी चतुराई।

उन तीन सम्बोधनों की व्याख्या इस प्रकार भी होती है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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