गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 327

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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पद्यानुवाद
नैश जागरण से रतनारी बनी सखे! हैं आँखें।
रह-रहकर झप-झप उठती है मृदु पलकों की पाँखें॥
छलक रही अनुराग माधुरी अलसाई 'कोरों' से।
वह कौन बँधी सी झलक रही है रेशम के डोरों से॥
हे माधव! हे कमल विलोचन! वनमाली! रसभीने!।
अपनी व्यथाहारिणीके ठिंग, जाओ हे परलीने!॥

बालबोधिनी- श्रीकृष्ण की आँखें रातभर जागने के कारण और विरहानुभूति से लाल हो गयी हैं और अलसता हेतु बार-बार मुँदी जा रही हैं, ऐसी अनुरञ्जित आँखों को देखकर श्रीराधा श्रीकृष्ण को भावों की सार्थकता हेतु कई नामों से सम्बोधित करती हैं सपत्नी विषयक ईर्ष्या प्रकट करती हैं। हरि! हरि! ये दोनों अव्यय पद 'खेद' प्रकट करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं। गान छन्द को पूर्ण करने के लिए भी स्तोभ रूप में इनका प्रयोग हो सकता है। खण्डिता श्रीराधा अपने सम्मुख प्रणतवान अपने प्रिय से कहती हैं हे माधव! हे लक्ष्मीपति! जाओ! चले जाओ! आप अन्यासक्त हैं, किस प्रकार दूसरों की प्रताड़ना करोगे यह 'मा' शब्द से द्योतित होता है। अथवा मा अर्थात लक्ष्मी स्वभाव से चञ्चला हैं, उनके पति का भी चञ्चल होना युक्तिसंगत ही है। मैं एक पतिपरायणा हूँ, आप मुझसे किस प्रकार स्नेह कर सकते हैं? अत: चले जाओ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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