गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 326

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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भैरवीरागयतितालाभ्यां गीयते।
गीतगोविन्द काव्य का यह सत्रहवाँ प्रबन्ध भैरव-राग तथा यति-ताल से गाया जाता है।

रजनि-जनित-गुरु-जागर-राग-कषायितमलस-निमेषम्।
वहति नयनमनुरागमिव स्फुटमुदित-रसाभिनिवेशम्॥
हरि हरि याहि माधव याहि केशव मा वद कैतववादं
तामनुसर सरसीरुहलोचन या तव हरति विषादम् ॥ध्रुवम्॥1॥ [1]

अनुवाद- हे हरि! (अपनी सुललित नयन-भंगिमा से अवलाओं के मन को हरण करने वाले) मुझे खेद है। हे माधव! जाओ! हे केशव! चले जाओ! तुम झूठ मत बोलो! जो तुम्हारे दु:ख का हरण कर सकती है, तुम उसी के पास चले जाओ! रात्रि में बहुत अधिक जागरण के कारण अलसतामय मन्द-मन्द निमीलित, रति रसावेश संयुक्त आरक्त नयन उस व्रजसुन्दरी के प्रति प्रबलानुराग को अभी भी प्रकाशित कर रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- रजनि-जनित-गुरु-जागर-राग-कषायितम् (रजन्यां जनितेन गुरुणा दीर्घेण जागरेण जागरणेन यो रागस्तेन, तस्यामनुरागेण च कषायितं लोहितीकृतं) [तथा] अलसनिमेषं (अलसेन निमेष: निमीलनं यत्र तं) [तथाच] उदितरसाभिनिवेशं (उदित: प्रकटित: रसाभिनिवेश: तस्या: सुरते अभिनिवेश: येन तथाभूतं) तव नयनं स्फुटम् (अभिव्यक्तम्) अनुरागं बहतीव (धारयतीव); तां प्रति तव हृदि स्थितोऽनुराग: प्राचूर्यात् अरविन्दचक्षुषा निर्गत इव प्रतीयते इति भाव:]; हे माधव [त्वं] याहि, हे केशव [त्वं] याहि [द्विरुक्त्या कोपाधिक्यं सूचितम्]; कैतववादं (त्वदेकपरायणोऽहमिति कपटवचनं) मा वद; हे सरसीरुहलोचन (कमललोचन; दृष्टिपातमात्रेणैव मुग्धस्त्रीजनवञ्चनपरायण इत्यभिप्रेत्यर्थ:) हरि हरि (खेदे) [त्वत्तोऽपि वञ्चनचतुरा] या [सहजप्रेमानभिज्ञस्य] तव विषादं (कापट्यापादितवैमनस्यं) हरति, ताम् (तव चित्तानुरूपचतुरव्यापारां कान्ताम्) अनुसर (अनुगच्छ) ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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