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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
सप्तदश: सन्दर्भ:
17. गीतम्
गीतगोविन्द काव्य का यह सत्रहवाँ प्रबन्ध भैरव-राग तथा यति-ताल से गाया जाता है। रजनि-जनित-गुरु-जागर-राग-कषायितमलस-निमेषम्। अनुवाद- हे हरि! (अपनी सुललित नयन-भंगिमा से अवलाओं के मन को हरण करने वाले) मुझे खेद है। हे माधव! जाओ! हे केशव! चले जाओ! तुम झूठ मत बोलो! जो तुम्हारे दु:ख का हरण कर सकती है, तुम उसी के पास चले जाओ! रात्रि में बहुत अधिक जागरण के कारण अलसतामय मन्द-मन्द निमीलित, रति रसावेश संयुक्त आरक्त नयन उस व्रजसुन्दरी के प्रति प्रबलानुराग को अभी भी प्रकाशित कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- रजनि-जनित-गुरु-जागर-राग-कषायितम् (रजन्यां जनितेन गुरुणा दीर्घेण जागरेण जागरणेन यो रागस्तेन, तस्यामनुरागेण च कषायितं लोहितीकृतं) [तथा] अलसनिमेषं (अलसेन निमेष: निमीलनं यत्र तं) [तथाच] उदितरसाभिनिवेशं (उदित: प्रकटित: रसाभिनिवेश: तस्या: सुरते अभिनिवेश: येन तथाभूतं) तव नयनं स्फुटम् (अभिव्यक्तम्) अनुरागं बहतीव (धारयतीव); तां प्रति तव हृदि स्थितोऽनुराग: प्राचूर्यात् अरविन्दचक्षुषा निर्गत इव प्रतीयते इति भाव:]; हे माधव [त्वं] याहि, हे केशव [त्वं] याहि [द्विरुक्त्या कोपाधिक्यं सूचितम्]; कैतववादं (त्वदेकपरायणोऽहमिति कपटवचनं) मा वद; हे सरसीरुहलोचन (कमललोचन; दृष्टिपातमात्रेणैव मुग्धस्त्रीजनवञ्चनपरायण इत्यभिप्रेत्यर्थ:) हरि हरि (खेदे) [त्वत्तोऽपि वञ्चनचतुरा] या [सहजप्रेमानभिज्ञस्य] तव विषादं (कापट्यापादितवैमनस्यं) हरति, ताम् (तव चित्तानुरूपचतुरव्यापारां कान्ताम्) अनुसर (अनुगच्छ) ॥1॥
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