गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 99

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥35॥

जिस (तत्त्वज्ञान) का अनुभव करने के बाद तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा और हे अर्जुन! जिस (तत्त्वज्ञान) से तू सम्पूर्ण प्राणियों को निःशेष भाव से पहले अपने में और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा।



व्याख्या- तत्त्वज्ञान होने पर फिर मोह नहीं होता; क्योंकि वास्तव में मोह की सत्ता है ही नहीं- ‘नासतो विद्यते भावः’[1]। इसलिये तत्त्वज्ञान एक ही बार होता है और सदा के लिये होता है। जैसे, पृथ्वी पर दिन के बाद रात होती है, रात के बाद दिन होता है; परन्तु सूर्य में रात आती ही नहीं। वहाँ नित्य-निरन्तर दिन से भी विलक्षण प्रकाश रहता है। ऐसे ही तत्त्वज्ञानरूप सूर्य में मोहरूप अन्धकार का प्रवेश कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं। मोह की सत्ता जीव की दृष्टि में है।



परमात्मा के अन्तर्गत जीव है- ‘ममैवांशो जीवलोक के’[2]और जीव के अन्तर्गत जगत् है- ‘ययेदं धार्यते जगत्’[3]। इसलिये साधक पहले जगत को अपने में देखता है- ‘द्रक्ष्यस्यात्मनि’, फिर अपने को परमात्मा में देखता है- ‘अथो मयि’। जगत को अपने में देखने से अहम् की सूक्ष्म सत्ता रहती है। यह सूक्ष्म अहम जन्म-मरण देने वाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद कराने वाला होता है। अपने को परमात्म में देखने से अहम का सर्वथा नाश हो जाता है और एक चिन्मय सत्तामात्र के सिवाय कुछ नहीं रहता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 2।16)
  2. (गीता 15।7)
  3. (गीता 7।5)

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