गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 61

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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न कर्मणामनारम्भान्नैष्कमर्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥4॥

मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता का अनुभव करता है और न कर्मों के त्याग मात्र से सिद्धि ही प्राप्त होता है।

व्याख्या- जब तक साधक में क्रिया का वेग रहता है, तब तक साधक के लिये निष्काम भाव पूर्वक केवल दूसरों के लिये कर्म करने आवश्यक हैं। दूसरों के हित के लिये कर्म करने से क्रिया का वेग शान्त हो जाता है और सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात बाँधने वाले नहीं रहते। कवेल कर्मों का स्वरूप से त्याग करने पर क्रिया का वेग शान्त नहीं होता। क्रिया का वेग शान्त हुए बिना प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता। प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद हुए बिना सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: ॥5॥

कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं।

व्याख्या- प्रकृति का विभाग अलग है और स्वरूप का विभाग अलग है। क्रिया मात्र प्रकृति-विभाग में है। स्वरूप अक्रिय है। प्रकृति में श्रम है और स्वरूप में विश्राम है। अतः जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, तब तक मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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