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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
अठारहवाँ अध्याय
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । व्याख्या- जीव ईश्वर का ही अंश है- ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’[1], ‘ममैवांशो जीवलोके’[2]। इसलिये भगवान ईश्वर की ही शरण में जाने की आज्ञा देते हैं। ईश्वर की शरण लेने से अहंकार नहीं रहता। जब तक जीव ईश्वर के वश (शरण)- में नहीं होता, तब तक वह प्रकृति के वश में रहता है। सब के हृदय में अन्तर्यामी-रूप से स्थित ईश्वरन ही भगवान श्रीकृष्ण हैं, और भगवान श्रीकृष्ण ही सबके हृदय में अन्तर्यामी-रूप से स्थित ईश्वर हैं[3]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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