गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 390

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

अठारहवाँ अध्याय

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तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥62॥

हे भरतवंशोद्भव! अर्जुन! तू सर्वभाव से उस ईश्वर की ही शरण में चला जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति (संसार से सर्वथा उपरति)-को और अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या- जीव ईश्वर का ही अंश है- ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’[1], ‘ममैवांशो जीवलोके’[2]। इसलिये भगवान ईश्वर की ही शरण में जाने की आज्ञा देते हैं। ईश्वर की शरण लेने से अहंकार नहीं रहता। जब तक जीव ईश्वर के वश (शरण)- में नहीं होता, तब तक वह प्रकृति के वश में रहता है।

सब के हृदय में अन्तर्यामी-रूप से स्थित ईश्वरन ही भगवान श्रीकृष्ण हैं, और भगवान श्रीकृष्ण ही सबके हृदय में अन्तर्यामी-रूप से स्थित ईश्वर हैं[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (मानस, उत्तर. 117।1)
  2. (गीता 15।7)
  3. (गीता 4।6; 5।29; 8।4; 9।24; 15;15)

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