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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
अठारहवाँ अध्याय
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन: । व्याख्या- जब तमोगुणी प्रमाद-वृत्ति आती है, तब वह सत्त्वगुण के विवेक-ज्ञान को ढक देती है और जब तमोगुणी निद्रा-आलस्य-वृत्ति आती है, तब वह सत्त्वगुण के प्रकाश को ढक देती है। तात्पर्य है कि विवेक-ज्ञान ढकने पर प्रमाद होता है और प्रकाश के ढकने पर आलस्य तथा निद्रा आती है। तामस मुनष्य को निद्रा, आलस्य और प्रमाद-तीनों से सुख मिलता है। तामस मनुष्य में मोह रहता है[1]। मोह विवेक में बाधक होता है। तामसी वृत्ति विवेक जाग्रत नहीं होने देती। इसलिये तामस मनुष्य का विवेक मोह के कारण लुप्त हो जाता है, जिससे वह आरम्भ या अन्त को देखता ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 14।8)
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