गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 334

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सत्रहवाँ अध्याय

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यातयाम गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥10॥

जो भोजन सड़ा हुआ, रस रहित, दुर्गन्धित, बासी और जूठा है तथा जो महान अपवित्र (मांस आदि) भी है, वह तामस मनुष्य को प्रिय होता है।

व्याख्या- चार श्लोकों के उपुर्यक्त प्रकरण में सात्त्विक, राजस और तामस आहार का वर्णन दीखता है; परन्तु वास्तव में यहाँ आहार का नहीं, प्रत्युत आहारी की रुचि का ही वर्णन हुआ है। इसलिये यहाँ ‘प्रियः’, ‘सात्त्विकप्रियाः’, ‘राजसस्येष्टाः’ और ‘तामसप्रियम्’ पदों में ‘प्रिय’ और ‘इष्ट’ शब्द आये हैं, जो रुचि के वाचक हैं।

सात्त्विक आहारी के लिये पहले भोजन का फल बताकर फिर भोजन के पदार्थों का वर्णन किया गया है; क्योंकि सात्त्विक मनुष्य किसी भी कार्य में प्रवृत्त होता है तो सबसे पहले उसके परिणाम पर विचार करता है। राजस आहारी के लिये पहले भोजन के पदार्थों का वर्णन करके फिर उसका फल बताया गया है; क्योंकि राजस मनुष्य राग के कारण सर्वप्रथम भोजन को ही देखता है, उसके परिणाम पर प्रायः विचार करता ही नहीं। तामस आहारी के वर्णन में भोजन का परिणाम बताया ही नहीं गया; क्योंकि तामस मनुष्य मूढ़ता के कारण भोजन और उसके परिणाम पर विचार करता ही नहीं। सात्त्विक का पहले विचार है, राजस का पीछे विचार है, तामस का विचार है ही नहीं!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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