गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 298

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पन्द्रहवाँ अध्याय

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श्रीभगवानुवाच-
ऊर्ध्वमूलमध:शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥1॥

श्रीभगवान बोले- ऊपर की ओर मूल वाले तथा नीचे की ओर शाखा वाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्ष को (प्रवाहरूप से) अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसार-वृक्ष को जानता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जानने वाला है।

व्याख्या- परिर्वनशील होने पर भी संसार को ‘अव्यय’ कहने का तात्पर्य है कि संसार में निरन्तर परिवर्तन होने पर भी कुछ व्यय (खर्चा) नहीं होता अर्थात अन्त नहीं होता। जैसे समुद्र के ऊपर कितनी लहरें उठती दीखती हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर उसका जल उतना ही रहता है, घटता-बढ़ता नहीं। ऐसे ही निरन्तर परिवर्तन दीखने पर भी संसार अव्यय ही रहता है।

परिवर्तनशील संसार भी परमात्मा की शक्ति ‘अपरा प्रकृति’ का कार्य होने से परमात्मा का ही स्वरूप है- ‘सदस्च्चाहमर्जुन’[1]। परिवर्तनरूप अपरा प्रकृति भी परमात्मा का स्वरूप है। यह संसार उस परमात्मा की लहरें हैं। जैसे ऊपर से लहरें दीखने पर भी समुद्र के भीतर कोई लहर नहीं है, भीतर से समुद्र समशान्त है, ऐसे ही ऊपर से संसार परिवर्तनशील दीखते हुए भी भीतर से एक सम, शान्त परमात्मतत्त्व है[2]। तात्पर्य यह हुआ कि संसार संसाररूप से अव्यय नहीं है, प्रत्युत भगवद्रूप से अव्यय है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 9।19)
  2. (गीता 13।27)

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