विषय सूची
गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । व्याख्या- सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों के स्थूल-सूक्ष्म तथा कारण शरीर एक प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति में ही स्थित रहते हैं और प्रकृति में ही लीन होते हैं- इस प्रकार देखने वाला ब्रह्म हो जाता है अर्थात प्रकृति से अतीत स्वतःसिद्ध अपने स्वरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या- जैसे मकान में रहते हुए भी हम मकान में अलग हैं, ऐसे ही शरीर में रहते हुए मानने पर भी हम स्वयं शरीर से अलग हैं। स्वयं अनादि है, पर शरीर आदिवाला है। स्वयं निर्गुण है, पर शरीर गुणमय है। स्वयं परमात्मा है, पर शरीर अनात्मा है। स्वयं अव्यय है, पर शरीर नाशवान है। इसलिेय अज्ञानी मनुष्य के द्वारा स्वयं को शरीर में स्थित मानने पर भी वास्तव में वह शरीर में स्थित नहीं है अर्थात शरीर से सर्वथा असम्बद्ध है- ‘न करोति न लिप्यते’। कारण कि शरीर का सम्बन्ध तो संसार के साथ है, पर स्वयं का सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। अतः वास्तव में स्वयं कभी शरीरस्थ हो सकता ही नहीं; परन्तु इस वास्तविकता की तरफ ध्यान न देने के कारण मनुष्य स्वयं को शरीरस्थ मान लेता है। ‘न करोति न लिप्यते’- यह साधनजन्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः स्वाभाविक है। तात्पर्य है कि स्वयं में लेशमात्र भी कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं है- यह स्वतःसिद्ध बात है। इसमें कोई पुरुषार्थ नहीं है अर्थात इसके लिये कुछ करना नहीं है। अतः कर्तृत्व-भोक्तृत्व को मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपने में स्वीकार नहीं करना है, इनके अभाव का अनुभव करना है; क्योंकि वास्तव में ये अपने में हैं ही नहीं! इसलिये साधक को अपने में निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व का अनुभव करना चाहिये। अपने में निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व का अनुभव होना ही जीवन्मुक्ति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज