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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । व्याख्या- ‘मैं’ जड़ (प्रकृति) है और ‘हूँ’ चेतन (पुरुष) है। ‘मैं हूँ’- यह जड़-चेतन का तादात्म्य है। इस ‘मैं हूँ’ में ही कर्तापन तथा भोक्तापन रहता है। यदि साधक ‘मैं’ को मिटा दे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। जैसे लोहे और अग्नि में तादात्म्य न रहने से लोहा पृथ्वी पर ही रह जाता है और अग्नि निराकार अग्नितत्त्व में लीन हो जाती है, ऐसे ही ‘मैं’ (अहम्) तो प्रकृति में ही रह जाता है और ‘हूँ’ (‘है’ का स्वरूप होने से) ‘है’ में ही विलीन हो जाता है। मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिये- इन दो बातों की सिद्धि होत ही ‘हूँ-?’ सत्तामात्र में अर्थात ‘है’ में विलीन हो जाता है। तात्पर्य है कि ‘मैं’ (जड़-अंश) जड़-में और ‘हूँ’ (चेतन-अंश) चेतन तत्त्व में विलीन हो जाता है। इस प्रकार जड़-चेतन की ग्रन्थि छूट जाती है और फिर एक ‘है’ (सत्तामात्र)-के सिवाय कुछ नहीं रहता। ‘है’ में कर्तापन और भोक्तापन नहीं है। तात्पर्य है कि भोगों में ‘हूँ’ खिंचता है, ‘है’ नहीं खिंचता। ‘हूँ’ ही कर्ता-भोक्ता बनता है, ‘है’ कर्ता-भोक्ता नहीं बनता। अतः साधक ‘हूँ’ को न मानकर ‘है’ को ही माने अर्थात अनुभव करे। सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण कोई बाधा नहीं देते; परन्तु इनता संग करने से जीव ऊर्ध्वगति, मध्यगति अथवा अधोगति में जाता है। गुणों का संग जीव स्वयं करता है। असंगता जीव का स्वरूप है- ‘असंगो ह्ययं पुरुषः’[1]। यदि जीव गुणों का संग न करे तो जन्म-मरण हो ही नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (बृहदा. 4।3।15)
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