गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 265

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृं च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥16॥

वे परमात्मा स्वयं विभाग रहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त की तरह स्थित हैं और वे जानने योग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले तथा उनका भरण-पोषण करने वाले और संसार करने वाले हैं।

व्याख्या- जैसे संसार भौतिक दृष्टि से एक हैं, ऐसे ही परमात्मा भी एक (अविभक्त) हैं। जैसे संसार भौतिक दृष्टि से एक होते हुए भी अनेक वस्तुओं, व्यक्तियों आदि के रूप में दीखता है, ऐसे ही परमात्मा एक होते हुए भी अनेक रूपों में दीखते हैं। तात्पर्य है कि परमात्मा एक होते हुए भी अनेक हैं और अनेक होते हुए भी एक हैं। वास्तविक सत्ता कभी दो हो सकती ही नहीं, क्योंकि दो होने से असत् आ जायगा।

उत्पन्न करने वाले भी परमात्मा हैं और उत्पन्न होने वाले भी परमात्मा हैं। भरण-पोषण करने वाले भी परमात्मा हैं और जिनका भरण-पोषण होता है, वे भी परमात्मा हैं। संहार करने वाले भी परमात्मा हैं और जिनका संसार होता है, वे भी परमात्मा हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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