गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 256

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥2॥

हे भरतवंशोद्भाव अर्जुन! तू सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत में ज्ञान है।

व्याख्या- क्षेत्र (शरीर)- की तो अनन्त ब्रह्माण्डों के साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा)- की अनन्त-अपार-असीम ब्रह्म के साथ एकता है। तात्पर्य है कि क्षेत्रज्ञ और ब्रह्म एक ही हैं। एक क्षेत्र के सम्बन्ध से वही ‘क्षेत्रज्ञ’ है और सम्पूर्ण क्षेत्रों के सम्बन्ध से रहित होने पर वही ‘ब्रह्म’ है।

ब्रह्म के लिये ‘माम्’ कहने का तात्पर्य है कि ब्रह्म और ईश्वर दो नहीं है, प्रत्युत एक ही हैं[1]। अनन्त ब्रह्माण्डों में जो निर्लिप्तरूप से सर्वत्र परिपूर्ण चिन्मय सत्ता है, वह ब्रह्म है और जो अनन्त ब्रह्माण्डों का स्वामी है, वह ईश्वर है।

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ॥3॥

वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिससे जो पैदा हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मुझसे सुन।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 9।4)

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