विषय सूची
गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । व्याख्या- क्षेत्र (शरीर)- की तो अनन्त ब्रह्माण्डों के साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा)- की अनन्त-अपार-असीम ब्रह्म के साथ एकता है। तात्पर्य है कि क्षेत्रज्ञ और ब्रह्म एक ही हैं। एक क्षेत्र के सम्बन्ध से वही ‘क्षेत्रज्ञ’ है और सम्पूर्ण क्षेत्रों के सम्बन्ध से रहित होने पर वही ‘ब्रह्म’ है। ब्रह्म के लिये ‘माम्’ कहने का तात्पर्य है कि ब्रह्म और ईश्वर दो नहीं है, प्रत्युत एक ही हैं[1]। अनन्त ब्रह्माण्डों में जो निर्लिप्तरूप से सर्वत्र परिपूर्ण चिन्मय सत्ता है, वह ब्रह्म है और जो अनन्त ब्रह्माण्डों का स्वामी है, वह ईश्वर है। तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 9।4)
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज