गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 251

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

बारहवाँ अध्याय

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यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: ॥15॥


जिससे कोई भी प्राणी उद्विग्न (क्षुब्ध) नहीं होता और जो स्वयं भी किसी प्राणी से उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग (हलचल)-से रहित है, वह मुझे प्रिय है।

व्याख्या- भगवान ने सिवाय अन्य की सत्ता मानने से ही उद्वेग, ईर्ष्या, भय आदि होते हैं। भक्त की दृष्टि में एक भगवान के सिवाय अन्य कोई सत्ता है ही नहीं, फिर वह किससे उद्वेग, ईर्ष्या, भय आदि करे और क्यों करे?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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