गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 25

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥14॥

हे कुन्तीनन्द! इन्द्रियों के विषय (जड़ पदार्थ) तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं तथा आने-जाने वाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो।

व्याख्या- संसार की समस्त परिस्थितियाँ आने-जाने वाली, मिलने-बिछुड़ने वाली हैं। मनुष्य यह चाहता है कि सुखदायी परिस्थिति बनी रहे और दुःखदायी परिस्थिति न आये। परन्तु सुखदायी परिस्थिति जाती ही है और दुःखदायी परिस्थिति आती ही है- यह प्राकृतिक नियम है अथवा प्रभु का मंगलमय विधान है। अतः साधक को प्रत्येक परिस्थिति प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करनी चाहिये।

निरन्तर परिवर्तनशील वस्तुओं में स्थिरता देखना भूल है। इस भूल से ही ममता और कामना की उत्पत्ति होती है। देखने में वस्तु मुख्य दीखती है, क्रिया गौण। पर वास्तव में क्रिया-ही-क्रिया है, वस्तु है ही नहीं!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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