गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 237

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

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मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥49॥

यह मेरा इस प्रकार का उग्र रूप देखकर तुझे व्यथा नहीं होनी चाहिये और विमूढ़ भाव भी नहीं होना चाहिये। अब निर्भय और प्रसन्न मन वाला होकर तू फिर उसी मेरे इस (चतुर्भुज) रूप को अच्छी तरह देख ले।

व्याख्या- अर्जुन को भयभीत देखकर भगवान कहते हैं कि मैं चाहे शान्त अथवा उग्र किसी भी रूप में दिखायी दूँ, हूँ तो मैं तुम्हारा सखा ही! तुम डर गये तो यह तुम्हारी मूढ़ता है! जो कुछ दीख रहा है, वह सब मेरी ही लीला है। इसमें डरने की क्या बात है?

हमें जो संसार दीखता है, वह भगवान का विराटरूप नहीं है। कारण कि विराटरूप तो दिव्य और अविनाशी है, पर दीखने वाला संसार भौतिक और नाशवान है। जैसे हमें भौतिक वृन्दावन तो दीखता है, पर उसके भीतर का दिव्य वृन्दावन नहीं दीखता, ऐसे ही हमें भौतिक विश्व तो दीखता है, पर उसके भीतर का दिव्य विश्व (विराट रूप) नहीं दीखता। ऐसा दीखने में कारण है- सुखभोग की इच्छा। भोगेच्छा के कारण ही जड़ता, भौतिकता, मलिनता दीखती है। यदि भोगेच्छा को लेकर संसार में आकर्षण न हो तो सब कुछ चिन्मय विराटरूप ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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