गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 230

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

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अर्जुन उवाच-
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा: ॥36॥

अर्जुन बोले- हे अन्तर्यामी भगवन! आपके (नाम, गुण, लीला का) कीर्तन करने से यह सम्पूर्ण जगत हर्षित हो रहा है और अनुराग (प्रेम)- को प्राप्त हो रहा है। (आपके नाम, गुण आदि के कीर्तन से) भयभीत होकर राक्षस लोग दसों दिशाओं में भागते हुए जा रहे हैं और सम्पूर्ण सिद्धगण आप को नमस्कार कर रहे हैं। यह सब होना उचित ही है।

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्माणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसतत्त्परं यत् ॥37॥

हे महात्मन! गुरुओं के भी गुरु और ब्रह्मा के भी आदिकर्ता आपके लिये (वे सिद्धगण) नमस्कार क्यों नहीं करें? क्योंकि हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षर-स्वरूप हैं; आप सत भी हैं, असत भी हैं और उनसे (सत-असत् से) पर भी जो कुछ है, वह भी आप ही हैं।

व्याख्या- सत और असत- दोनों सापेक्ष होने से लौकिक हैं और इनसे परे है, वह निरपेक्ष होने से अलौकिक है। लौकिक और अलौकिक- दोनों ही परमात्मा के समग्ररूप हैं। परमात्मा की परा और अपरा प्रकृति सत-असत से परे नहीं है, पर परमात्मा सत-असत परे भी हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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