गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 220

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

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अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥16॥

हे विश्वरूप! हे विश्वेश्वर! आपको मैं अनेक हाथों, पेटों, मुखों और नेत्रों वाला तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देख रहा हूँ। मैं आपके न आदि को, न मध्य को और न अन्त को ही देख रहा हूँ।

व्याख्या- भगवान के एक अंश में भी अनन्तता है। भगवान साकार हों या निराकार, सगुण हों या निर्गुण, बड़े-से-बड़े या छोटे-से-छोटे, उनका अनन्तपना ज्यों-का-त्यों रहता है।

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥17॥

मैं आपकेा किरीट (मुकुट), गदा, चक्र (तथा शंख और पद्म) धारण किये देख हुए देख रहा हूँ। आपको तेज की राशि, सब ओर प्रकाश वाले, देदीप्यमान अग्नि तथा सूर्य के समान कान्ति वाले, नेत्रों के द्वारा कठिनता से देखे जानेयोग्य और सब तरफ से अप्रमेय स्वरूप देख रहा हूँ।

व्याख्या- भगवान के द्वारा प्रदत्त दिव्यदृष्टि से भी अर्जुन भगवान के विराटरूप को देखने में पूरे समर्थ नहीं हो रहे हैं- ‘दुर्निरीक्ष्यम्’। इससे सिद्ध होता है कि भगवान की दी हुई शक्ति से भी भगवान को पूरा नहीं जान सकते। इतना ही नहीं, भगवान भी अपने को पूरा नहीं जानते, यदि पूरा जान जायँ तो वे अनन्त कैसे रहेंगे?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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