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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
ग्यारहवाँ अध्याय
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् । व्याख्या- भगवान के एक अंश में भी अनन्तता है। भगवान साकार हों या निराकार, सगुण हों या निर्गुण, बड़े-से-बड़े या छोटे-से-छोटे, उनका अनन्तपना ज्यों-का-त्यों रहता है। किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् । व्याख्या- भगवान के द्वारा प्रदत्त दिव्यदृष्टि से भी अर्जुन भगवान के विराटरूप को देखने में पूरे समर्थ नहीं हो रहे हैं- ‘दुर्निरीक्ष्यम्’। इससे सिद्ध होता है कि भगवान की दी हुई शक्ति से भी भगवान को पूरा नहीं जान सकते। इतना ही नहीं, भगवान भी अपने को पूरा नहीं जानते, यदि पूरा जान जायँ तो वे अनन्त कैसे रहेंगे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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