गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 199

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दसवाँ अध्याय

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विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूय: कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥18॥

हे जनार्दन! आप अपने योग (सामर्थ्य)-को और विभूतियों को विस्तार से फिर कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नही हो रही है।

व्याख्या- जैसे भूखे को अन्न और प्यासे को जल प्रिय लगता है, ऐसे ही भक्त अर्जुन को भगवान के वचन बहुत प्रिय और विलक्षण लग रहे हैं। वे ज्यों-ज्यों भगवान के वचन सुनते हैं, त्यों-ही-त्यों उनका भगवान के प्रति विशेष भाव प्रकट होता जाता है। कानों के द्वारा उन अमृतमय वचनों को सुनते हुए न तो उन वचनों का अन्त आता है और न उनको सुनते हुए तृप्ति ही होती है!

श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतय: ।
प्राधान्यत: कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥19॥

श्री भगवान बोले- हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये प्रधानता से (संक्षेप से) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है।

व्याख्या- भगवान अनन्त हैं; अतः उनकी विभूतियाँ भी अनन्त हैं। इस कारण भगवान की सम्पूर्ण विभूतियों को न तो कोई कह समा है और न सुन ही सकता है। अगर कोई कह-सुन ले तो फिर वे अनन्त कैसे रहेंगी? इसलिये भगवान यहाँ और अध्याय के अन्त में भी कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियों को संक्षेप से कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 10।40)

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