गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दसवाँ अध्याय
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन । व्याख्या- जैसे भूखे को अन्न और प्यासे को जल प्रिय लगता है, ऐसे ही भक्त अर्जुन को भगवान के वचन बहुत प्रिय और विलक्षण लग रहे हैं। वे ज्यों-ज्यों भगवान के वचन सुनते हैं, त्यों-ही-त्यों उनका भगवान के प्रति विशेष भाव प्रकट होता जाता है। कानों के द्वारा उन अमृतमय वचनों को सुनते हुए न तो उन वचनों का अन्त आता है और न उनको सुनते हुए तृप्ति ही होती है! श्रीभगवानुवाच व्याख्या- भगवान अनन्त हैं; अतः उनकी विभूतियाँ भी अनन्त हैं। इस कारण भगवान की सम्पूर्ण विभूतियों को न तो कोई कह समा है और न सुन ही सकता है। अगर कोई कह-सुन ले तो फिर वे अनन्त कैसे रहेंगी? इसलिये भगवान यहाँ और अध्याय के अन्त में भी कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियों को संक्षेप से कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 10।40)
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