गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 194

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दसवाँ अध्याय

Prev.png

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥8॥

मैं संसारमात्र का प्रभव (मूल कारण) हूँ और मुझ से सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात चेष्टा कर रहा है-ऐसा मानकर मुझमें ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान भक्त मेरा ही भजन करते हैं- सब प्रकार से मेरे ही शरण होते हैं।

व्याख्या- पदार्थ और व्यक्ति भी भगवान से होते हैं (अहं सर्वस्य प्रभवः) और क्रियाएँ भी भगवान से ही होती हैं (मत्तः सर्वं प्रवर्तते)। परन्तु जीव पदार्थों, व्यक्तियों और क्रियाओं से सम्बन्ध जोड़कर, उनको अपना मानकर, उनका भोक्ता और कर्ता बनकर बन्धन में पड़ जाता है। जो मनुष्य पदार्थों, व्यक्तियों और क्रियाओं से सम्बन्ध न जोड़कर भगवान के महत्त्व (प्रभाव) को मान लेते हैं, वे संसार में न फँसकर भगवान के ही भजन में लग जाते हैं।

मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥9॥

मुझमें चित्त वाले तथा मुझमें प्राणों को अर्पण करने वाले (भक्तजन) आपस में (मेरे गुण, प्रभाव आदि को) जनाते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मुझमें ही प्रेम करते हैं।

व्याख्या- भक्तों का चित्त भगवान को छोड़कर कहीं जाता ही नहीं। उनकी दृष्टि में जब एक भगवान के सिवाय और कुछ है ही नहीं तो फिर उनका चित्त कहाँ जाय, कैसे जाय और क्यों जाय? वे भगवान के लिये ही जीते हैं। उनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ भगवान के लिये ही होती हैं। कोई सुनने वाला आ जाय तो वे भगवान के गुण, प्रभाव आदि की विलक्षण बातों का ज्ञान कराते हैं, भगवान की लीला-कथा का वर्णन करते हैं, और कोई सुनाने वाला आ जाय तो प्रेमपूर्वक सुनते हैं। न तो कहने वाला तृप्त होता है, न सुनने वाला तृप्ति नहीं होती- यह वियोग है और नित्य नया रस मिलता है- यह योग है। इस वियोग और योग के कारण प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः