गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
नवाँ अध्याय
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै: । व्याख्या-‘कर्म’ भी शुभ- अशुभ होते हैं और ‘फल’ भी। दूसरों के हित के लिय करना ‘शुभ-कर्म’ है और अपने लिये करना ‘अशुभ-कर्म है। अनुकूल परिस्थिति ‘शुभ फल’ है और प्रतिकूल परिस्थिति ‘अशुभ फल’ है। भगवान का भक्त शुभकर्मों को भगवान के अर्पण करता है, अशुभ कर्म करता नहीं और शुभ-अशुभ फल से अर्थात अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति से सुखी-दुःखी नहीं होता। उसके अनन्त जन्मों के संचित शुभाशुभ कर्म भस्म हो जाते हैं; जैसे-घास के ढेर में जलता हुआ घास का टुकड़ा फेंकने से सब घास जल जाता है। भगवान के अर्पण करने से संसार का सम्बन्ध (गुणसंग) नहीं रहता, प्रत्युत केवल भगवान का सम्बन्ध रह जाता है, जो कि स्वतः पहले से ही है। समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: । व्याख्या- मनुष्य भगवान् को अपनी वस्तुएँ तथा क्रियाएँ अर्पण करे अथवा न करे, भगवान में कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे तो सदा समान ही रहते हैं। किसी वर्णविशेष, आश्रमविशेष, जातिविशेष, कर्मविशेष, सम्प्रदायविशेष, योग्यताविशेष आदि का भी भगवान पर कोई असर नहीं पड़ता। अतः प्रत्येक वर्ण, आश्रम, जाति, सम्प्रदाय आदि का मनुष्य उन्हें प्राप्त कर सकता है। भगवान केवल आन्तरिक भाव को ही ग्रहण करते हैं। भगवान् की दृष्टि में उनके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, फिर वे किससे द्वेष करें और किसमें राग करें? जीव ही राग-द्वेष करके संसार में बँध जाता है और राग-द्वेष का त्याग करके मुक्त हो जाता है। इसलिये बन्धन और मुक्ति जीव की ही होती है, भगवान की नहीं। विषमता जीव करता है, भगवान नहीं। जो प्रेमपूर्वक भगवान का भजन करते हैं, वे भगवान हैं और भगवान उनमें हैं अर्थात भगवान उनमे विशेषरूप से प्रकट हैं। तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वी में जल सब जगह रहता है, पर कुएँ में विशेष प्रकट (आवरण रहित) होता है, ऐसे ही भगवान संसारमात्र में परिपूर्ण होते हुए भी भक्तों में विशेष प्रकट होते हैं। भक्त भगवान से प्रेम करते हैं और भगवान भक्त से प्रेम करते हैं[1]। इसलिये भक्त भगवान में हैं और भगवान भक्तों में हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 7।17)
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