गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 181

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

नवाँ अध्याय

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अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥16॥

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह: ।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥17॥

गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत् ।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥18॥

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।

व्याख्या- उपर्युक्त श्लोकों को देखते हुए साधक यह बात दृढ़ता से स्वीकार कर ले कि कार्य-कारणरूप से स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, समझने और मानने में।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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