गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 172

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

आठवाँ अध्याय

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नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥27॥

हे पृथानन्दन! इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अतः हे अर्जुन! तू सब समय में योगयुक्त (समता में स्थित) हो जा।

व्याख्या- सकाम (भोग तथा संग्रह की कामना वाला) मनुष्य ही मोहित होता अर्थात जन्म-मरण में जाता है। शुक्ल और कृष्ण मार्ग को जानने वाला मनुष्य निष्काम (योगी) हो जाता है, इसलिये वह जन्म-मरण में नहीं जाता अर्थात कृष्ण मार्ग को प्राप्त नहीं होता।

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥28॥

योगी (भक्त) इसको (इस अध्याय में वर्णित विषय को) जानकर वेदों में, यज्ञों में, तपों में तथा दान में जो- जो पुण्यफल कहे गये हैं, उन सभी पुण्यफलों का अतिक्रमण कर जाता है और आदि-स्थान परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या- पूर्वश्लोक में शुक्ल और कृष्ण-दोनों गतियों का उपसंहार करके अब भगवान यहाँ पूरे अध्याय का उपसंहार करते हैं। वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, दान आदि जितने भी पुण्यकर्म हैं, उनका अधिक-से-अधिक फल ब्रह्मलोक की प्राप्ति होना है, जहाँ से पुनः लौटकर संसार में आना पड़ता है, परन्तु भगवान का आश्रय लेने वाला भक्त उस ब्रह्मलोक का भी अतिक्रमण करके परमधाम को प्राप्त हो जाता है, जहाँ से पुनः लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः।।8।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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