गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 139

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

छठा अध्याय

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पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स: ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥44॥

वह (श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगों के परवश होता हुआ भी उस पहले मनुष्य जन्म में किये हुए अभ्यास (साधन) के कारण ही (परमात्मा की तरफ) खिंच जाता है; क्योंकि योग (समता) का जिज्ञासु भी वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों का अतिक्रमण कर जाता है।

व्याख्या- स्वर्गादि लोकों से लौटकर श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला साधक पहले किये हुए साधन के कारण जबर्दस्ती परमात्मा की तरफ खिंच जाता है।

जो योग में प्रवृत्त नहीं हुआ है, पर अन्तःकरण में योग का महत्त्व होने के कारण जो योग को प्राप्त करना चाहता है, ऐसा योग का जिज्ञासु भी वेदोक्त सकाम कर्मो। से तथा उनके फल से ऊँचा उठ जाता है, फिर जो योग में लगा हुआ है और योग भ्रष्ट हो गया है, उसका कल्याण हो जाय-इसमें कहना ही क्या है!

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष: ।
अनेकजन्मसंसिद्ध स्ततो याति परां गतिम् ॥45॥

परन्तु जो योगी प्रयत्न पूर्वक यत्न करता है और जिस के पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मों से सिद्ध हुआ है, वह योगी फिर परम गति को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या-‘ अनेकजन्म’ का अर्थ है-एक से अधिक जन्म। श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला सर्वप्रथम मनुष्य जन्म में साधन करके शुद्ध हुआ, फिर स्वर्गादि लोकों में जाकर वहाँ के भोगों से अरुचि होने से शुद्ध हुआ, और फिर श्रीमानों के घर जन्म लेकर तत्परतापूर्वक साधन में लगकर शुद्ध हुआ- इस प्रकार तीन जन्मों में शुद्ध होना ही उसका ‘अनेकजन्मसंसिद्ध’ होना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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