गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 130

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

छठा अध्याय

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यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्जलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥26॥

यह अस्थिर और चंचल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँ से हटा कर इस को एक परमात्मा में ही भलीभाँति लगाये।

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।'
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥27॥

जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है तथा जिस का मन सर्वथा शान्त (निर्मल) हो गया है, ऐसे इस ब्रह्मरूप बने हुए योगी को निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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