गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
छठा अध्याय
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत: । व्याख्या- जिस सुख के लाभ का तो अन्त नहीं है और हानि की सम्भावना ही नहीं है, तथा जिसमें दुःख का लेश भी नहीं है- ऐसे अखण्डसुख के प्राप्त होने में ही सभी साधनों की पूर्णता है। तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् । व्याख्या- ‘संयोग’ तथा ‘वियोग’ का विभाग अलग और ‘योग’ का विभाग अलग है। शरीर-संसार के संयोग का वियोग तो अवश्यम्भावी है, पर परमात्म के ‘योग’ का कभी वियोग होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं। कारण कि शरीर-संसार कभी हमारे साथ रहते ही नहीं और परमात्मा कभी हमारा साथ छोड़ते ही नहीं। परमात्मा का यह योग सभी साधकों का साध्य है। संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत: । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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