गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 128

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

छठा अध्याय

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यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत: ।
यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते ॥22॥

जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता।

व्याख्या- जिस सुख के लाभ का तो अन्त नहीं है और हानि की सम्भावना ही नहीं है, तथा जिसमें दुःख का लेश भी नहीं है- ऐसे अखण्डसुख के प्राप्त होने में ही सभी साधनों की पूर्णता है।

तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥23॥

जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी को ‘योग’ नाम से जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोग का लक्ष्य है), उस ध्यान योग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चपूर्वक करना चाहिये।

व्याख्या- ‘संयोग’ तथा ‘वियोग’ का विभाग अलग और ‘योग’ का विभाग अलग है। शरीर-संसार के संयोग का वियोग तो अवश्यम्भावी है, पर परमात्म के ‘योग’ का कभी वियोग होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं। कारण कि शरीर-संसार कभी हमारे साथ रहते ही नहीं और परमात्मा कभी हमारा साथ छोड़ते ही नहीं। परमात्मा का यह योग सभी साधकों का साध्य है।

संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत: ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत: ॥24॥

संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग करके और मन से ही इन्द्रिय-समूह को सभी ओर से हटा कर।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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