गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 123

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

छठा अध्याय

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तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय: ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥12॥

उस आसन पर बैठ कर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तः करण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर: ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥13॥

काया, सिर और गले को सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओं को न देखकर केवल अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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