गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 103

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

Prev.png

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥41॥

हे धनंजय! योग (समता) के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और विवेक ज्ञान के द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयों का नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते।

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन: ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥42॥

इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय का ज्ञानरूप तलवार से छेदन करके योग (समता) में स्थित हो जा और (युद्ध के लिये) खड़ा हो जा।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः।।4।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः