गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 887

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-14
गुणत्रय-विभाग-योग
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।। श्लोक 1 से 4 का भावार्थ।।

अध्याय 14 में,

  1. प्रकृति के सत्त्व-रज-तम गुणों के लक्षणों का;
  2. उनके प्रभाव का;
  3. इन गुणों से चराचर सृष्टि की रचना होने का; एतद्गुणाभिभूत व्यक्ति की गति का; तथा
  4. इन गुणों से अतीत रहने के फल लाभ का वर्णन किया गया है। प्रकृति के इन गुणों का ज्ञान होने को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान बताया है। प्रकृति गुणों के ज्ञान को अप्राप्य या असम्भव भी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि मुनिजन पहले भी यह ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं। इस ज्ञान प्राप्ति का महत्त्व[1] यह बताया है कि जो व्यक्ति इस ज्ञान का आश्रय लेकर परमेश्वरमय हो जाते हैं वे मोक्ष प्राप्त करते हैं; और मोक्ष प्राप्त कर लेने के पश्चात उस व्यक्ति को न तो जन्म लेने की व्यथा भोगनी पड़ती है और न अन्त समय की यातनाएँ भोगनी होती हैं; अर्थात उसे आवागमन से छुटकारा मिल जाता है।

सृष्टि की रचना ईश्वर अथवा परम-ब्रह्म परमेश्वर द्वारा कैसे होती है? यह[2] इस प्रकार बताया है कि प्रकृति को महत ब्रह्म योनी अर्थात् अखिल विश्व के विस्तार का मूल कारण बताया है और जो भी चेतना या चैतन्यता दिखाई देती है वह आत्मारूप स्वयं ब्रह्म है क्योंकि जब ब्रह्म की इच्छा ‘बहुस्यां प्रजायाय’ अर्थात एक से अनेक होने की होती है, तो इस ब्रह्मेच्छा रूप-बीज से ही नानाविध चराचर सृष्टि की उत्पत्ति होती है।[3]

श्लोक 4 में सत्त्व-रज-तम मय त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा निर्मित नानारूपा स्थावर जंगम सृष्टि ब्रह्म का ही विस्तार असँख्य रूपों में है जिसमें चेतना अर्थात जीव-रूप-बीज ब्रह्म ही है। प्रकृति ब्रह्म की माया है; जीव रूप आत्मा भी ब्रह्म है। यह बताकर यह निरूपित किया है कि प्रकृति व पुरुष से ही सृष्टि रचना होती है।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्लोक 2 में
  2. श्लोक 3 में
  3. इस सम्बन्ध में अध्याय 8 श्लोक 18 व 19 देखो
  4. इस प्रसंग में अध्याय 7 श्लोक 6 व 10; अध्याय 9 श्लोक 18; अध्याय 10 श्लोक 8 व 39; अध्याय 13 श्लोक 19, 21, 23, 26, 29 व 30; भी देख लेने चाहिए

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
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1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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