गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
गुणत्रय-विभाग-योग
।। श्लोक 1 से 4 का भावार्थ।। अध्याय 14 में,
सृष्टि की रचना ईश्वर अथवा परम-ब्रह्म परमेश्वर द्वारा कैसे होती है? यह[2] इस प्रकार बताया है कि प्रकृति को महत ब्रह्म योनी अर्थात् अखिल विश्व के विस्तार का मूल कारण बताया है और जो भी चेतना या चैतन्यता दिखाई देती है वह आत्मारूप स्वयं ब्रह्म है क्योंकि जब ब्रह्म की इच्छा ‘बहुस्यां प्रजायाय’ अर्थात एक से अनेक होने की होती है, तो इस ब्रह्मेच्छा रूप-बीज से ही नानाविध चराचर सृष्टि की उत्पत्ति होती है।[3] श्लोक 4 में सत्त्व-रज-तम मय त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा निर्मित नानारूपा स्थावर जंगम सृष्टि ब्रह्म का ही विस्तार असँख्य रूपों में है जिसमें चेतना अर्थात जीव-रूप-बीज ब्रह्म ही है। प्रकृति ब्रह्म की माया है; जीव रूप आत्मा भी ब्रह्म है। यह बताकर यह निरूपित किया है कि प्रकृति व पुरुष से ही सृष्टि रचना होती है।[4] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 2 में
- ↑ श्लोक 3 में
- ↑ इस सम्बन्ध में अध्याय 8 श्लोक 18 व 19 देखो
- ↑ इस प्रसंग में अध्याय 7 श्लोक 6 व 10; अध्याय 9 श्लोक 18; अध्याय 10 श्लोक 8 व 39; अध्याय 13 श्लोक 19, 21, 23, 26, 29 व 30; भी देख लेने चाहिए
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