गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 561

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-6
आत्म-संयम-योग
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(44)
पूर्वाभ्यासेन तेनैव
ह्रियते ह्यावशोऽपि स: ।
जिज्ञासुरपि योगस्य
शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥

धीमत्-कुल में पैदा हो वो
अवश[1] होते भी पूर्वाभ्यास से।
जिज्ञासु मात्र ही योग प्रति हो
अतीत[2] हो जाता शब्द-ब्रह्म[3] से।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पहले के किए हुए अभ्यास से विवश होकर
  2. पार कर जाना
  3. ब्रह्म दो तरह का माना गया है; एक तो आसक्ति युक्त फल श्रुतियों का सगुण ब्रह्म; दूसरा अनासक्त निर्गुण ब्रह्म; यह निर्गुण ब्रह्म ही सगुण ब्रह्म से परे होना कहा गया है।

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5. कर्म-संन्यास योग 474
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अंतिम पृष्ठ 1142

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