गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 467

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-4
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग
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श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं
तत्परं: संयतेन्द्रिय: ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम्
अचिरेणधिगच्छति ॥39॥

(39)
श्रद्धावान तत्पर[1] संयतेन्द्रिय[2] को
ज्ञान स्वतः ही हो जाता।
ज्ञानोपलब्धि होने पर फिर वो
परम शान्ति शीघ्र ही पाता।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रत या लीन।
  2. जितेन्द्रिय; वह व्यक्ति जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है।

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अंतिम पृष्ठ 1142

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