गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 458

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-4
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग
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एवं बहुविधा यज्ञा
वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वान्
एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥32॥

(32)
बहुविध यज्ञ यह वेद-वाणी में
वर्णित है जो वितृत रूप से।
जान समुद्भव[1] इनका कर्म में
होगा विमुक्त भव-बन्धनों से।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्याय 3 श्लोक 14 में जो कहा गया है कि “समुद्भव” यज्ञ का होता कर्म से” उसी निरूपण का पुष्टिकरण यहाँ यह कह कर किया है कि इन यज्ञों को कर्म से उत्पन्न होने वाले जानो अर्थात् यज्ञ कर्म से निष्पन्न होता है और कर्म, शरीर, मन तथा इन्द्रियों से होता है अथवा किया जाता है।

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अंतिम पृष्ठ 1142

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