गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग
कामना तथा वासना युक्त काम्य कर्म बन्धनात्मक होता है अतः कर्म में कामना व वासना ही कर्म का कर्मत्व या बन्धकत्व गुण माना गया है इस गुण के कारण ही मनुष्य को तथा जीव मात्र को कर्म-बन्धन में बद्ध रहने की शक्ति कर्म में होती है। कामना व वासना को कर्म से निकाल देना कर्म की कर्मत्व या बन्धक शक्ति को नष्ट करना होता है; कर्म के इस कर्मत्व परिणाम के नष्ट हो जाने को ही “अकर्म” कहते हैं। इस “कर्मत्व” के नष्ट हो जाने पर कर्म “कर्म न करने के समान अर्थात् अकर्म” हो जाता है इसके पश्चात् कर्म करने वाले कर्ता को कर्मों का बन्धनात्मक दोष नहीं लगता और कर्म करते रहने पर भी कर्ता ऐसा रहता है मानों वह कर्म करता ही नहीं। श्लोक 18 में उपदिष्टः- कर्म में अकर्म को अकर्म में कर्म को; में यही सिद्धान्त कर्म को अकर्म में परिवर्तित करने का बताया गया है और यह निरूपित किया है किः- “सर्व-कर्म-कृत भी रहता वो योगी।।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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