गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 436

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-4
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग
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कामना तथा वासना युक्त काम्य कर्म बन्धनात्मक होता है अतः कर्म में कामना व वासना ही कर्म का कर्मत्व या बन्धकत्व गुण माना गया है इस गुण के कारण ही मनुष्य को तथा जीव मात्र को कर्म-बन्धन में बद्ध रहने की शक्ति कर्म में होती है। कामना व वासना को कर्म से निकाल देना कर्म की कर्मत्व या बन्धक शक्ति को नष्ट करना होता है; कर्म के इस कर्मत्व परिणाम के नष्ट हो जाने को ही “अकर्म” कहते हैं। इस “कर्मत्व” के नष्ट हो जाने पर कर्म “कर्म न करने के समान अर्थात् अकर्म” हो जाता है इसके पश्चात् कर्म करने वाले कर्ता को कर्मों का बन्धनात्मक दोष नहीं लगता और कर्म करते रहने पर भी कर्ता ऐसा रहता है मानों वह कर्म करता ही नहीं। श्लोक 18 में उपदिष्टः-

कर्म में अकर्म को अकर्म में कर्म को;
देखने की भावना होती जिसकी।।”

में यही सिद्धान्त कर्म को अकर्म में परिवर्तित करने का बताया गया है और यह निरूपित किया है किः-

“सर्व-कर्म-कृत भी रहता वो योगी।।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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