गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 235

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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(39)
एषा तेऽभिहिता सांख्ये
बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ
कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।

(39)
तुम्हें बताया सांख्य-योग[1] को
अब बुद्धि-योग[2] में सुनो इसी को।
युक्त जिस बुद्धि से तुम पार्थ! हो
करोगे प्रहासित[1] कर्म-बन्ध को।।

।। श्लोक 39 से 41 का भावार्थ ।।

(1) तुम्हें बताया....सांख्य-योग को”-

श्लोक 38 तक सांख्य-निष्ठा अथवा ज्ञाननिष्ठा के यह सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए हैं-

  1. मृत का या जीवित का पण्डित-जन सोच नहीं करते;[2]
  2. आत्मा सत् व अज-अमर है शरीर नाशवान है; [3]
  3. अव्यक्त से व्यक्त सृष्टि का निर्माण होता है और प्रलय होने पर व्यक्त सृष्टि अव्यक्त में लय हो जाती है, [4]
  4. चातुर्यवर्ण व्यवस्था (जो सांख्य मार्ग को भी मान्य है) के अनुसार युद्ध करना क्षत्रिय का स्वधर्म-रूप कर्तव्य-कर्म है[5]
  5. साम्य-बुद्धि से युद्ध करने पर हत्या का पाप नहीं लगता वह धर्म-युद्ध ही है।[6]

(2) बुद्धि-योग-

कर्म-योग निष्ठा का यह मत है कि ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भी संन्यास ग्रहण न कर निष्काम बुद्धि से कर्म करते रहना चाहिए यही ‘बुद्धि-योग’ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तिरस्कृत करना।
  2. श्लोक 11
  3. श्लोक 12-30
  4. श्लोक 28
  5. श्लोक 31
  6. श्लोक 38

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1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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