गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 18

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण


गीतोपदेश के पश्चात् भागवत धर्म की स्थिति
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गुप्त-वंश:-

कनिष्क के लगभग 242 वर्ष पश्चात् अर्थात् 320 ई. में गुप्त वंश राज्य की स्थापना चन्द्रगुप्त प्रथम ने की। यह गुप्तवंशीय राज्य 414 ई. तक रहा। इस वंश का चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य बड़ा शक्तिशाली सम्राट था, जिसने 380 से 414 ई. तक राज्य किया। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के पश्चात् उसके वंशज 544 ई. तक राज्य करते रहे। गुप्तकाल तक भारत में विदेशी जातियाँ यूनानी, शक, पल्लव, कुषाण, हूण आदि बस गये थे। यह विदेशी जातियाँ भारतीय होकर भारतीय संस्कृति में समाविष्ट होती जा रही थी। अतः इनको भारतीय भागवत धर्म में समाविष्ट करने के लिये को सरल व सुबोध बनाने की आवश्यकता थी।

गुप्तकाल में बौध-धर्म का महायान पंथ ही प्रमुख हो गया था हीनयान विलीन सा हो चुका था और वैदिक धर्म का अभ्युदय बड़ी प्रबलता से हो रहा था। न्याय सूत्रों पर वात्स्यायन ने भाष्य लिखे, योग-सूत्रों पर “व्यास-भाष्य” लिखे गए, मनुस्मृति के आधार पर याज्ञवल्क्य, नारद, कात्यायन, वृहस्पति आदि आचार्यों ने स्मृति ग्रन्थों की रचना की; सांख्य-दर्शन पर आचार्य ईश्वर कृष्ण ने ‘सांख्य-सारिका’ टीका लिखी।

इस प्रकार समस्त भारत में वैदिक धर्म की प्रचण्ड लहर बह चली जिसमें बुद्ध-धर्म तिरोहित होने लगा। इस गुप्तकाल में बौद्ध-धर्म के ‘महायानसंपरिग्रह; अभिधर्म कोष; प्रमाण-समुच्चय” आदि ग्रन्थ संशोधित रूप से लिखे गए जिनमें भागवत-धर्म का अनुसरण किया और बुद्ध अवतार माने जाने लगे उनकी उपासना व आराधना होने लगी और उनकी मूर्तियाँ बनाई जाकर पूजा होने लगी। इस प्रकार मूर्ति पूजा के विरोधी अनीश्वरवादी बुद्ध में ईश्वर का प्रादुर्भाव हो गया जिसके कारण वह आज तक भी चीन, तिब्बत, बर्मा, जापान, लंका आदि में पूजे जाते हैं। बुद्ध धर्म को यह भागवत-धर्म की ही देन है जिसके कारण यह विदेशों में दूर-दूर तक अब भी समादृत हैं अन्यथा हीनयान के साथ यह कभी का ही विलुप्त हो चुका होता।

बुद्ध-धर्म के पतन का एक और मुख्य कारण यह भी था कि बुद्ध स्वयं अपने उपदेशानुसार आचरण नहीं करते थे। गीता अध्याय 3 श्लोक 26 में उपदेशक[1] के आचरण का मूल भूत सिद्धान्त निरूपित किया गया है कि एक ज्ञानी उपदेशक को अपने उपदेशानुसार स्वयं आचरण कर दूसरे लोगों से भी वैसा ही आचरण करने का आग्रह करना चाहिए और अपने उपदेश के विपरीत स्वयं ही आचरण कर लोगों के विचार व भावनाओं में अपने प्रति बुद्धि-भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिए। यही सच्चा उपदेशक होता है। यह बात बुद्ध में नहीं थी, वह लोगों को उपदेश तो अहिंसा का देते थे, दया पालो धर्म निभाओ का नारा लगाते थे किन्तु स्वयं हिंसक थे, मांस व मछली उनका प्रिय भोजन था।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ज्ञानी पुरुष
  2. लो. मा. तिलक का गीता रहस्य-परिशिष्ट-“गीता और बौद्ध-ग्रन्थ” पृष्ठ 578।

संबंधित लेख

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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