गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 157

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 1
(अर्जुन विषाद-योग)
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युद्ध न करने के कारणों को अर्जुन ने तर्क सहित श्रीकृष्ण के सम्मुख इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

(1) पहला कारण अर्जुन ने यह बताया है कि इस युद्ध में गुरुजन पितृजन के अतिरिक्त वयस्क संतति पुत्र-पौत्रादि सभी मारे गए तो राज्य की रक्षा करने वाला कोई नहीं रहेगा और राज्य का उपभोग भी कौन करेगा। सर्वनाश के पश्चात् राज्य प्राप्त करना व्यर्थ व अर्थहीन होगा क्योंकि जब कोई शक्तिशाली शासक केन्द्र में नहीं रहेगा तो जो शक्तियाँ व राजा लोग अभी हमारे मित्र बने हुए हैं वही विद्रोही हो जावेंगे और सर्वत्र अराजकता फैल जावेगी।

(2) दूसरा कारण यह था कि अर्जुन को यह प्रतीति निश्चत रूप से हो गई थी कि आपस की लड़ाई व घर के विरोध के कारण सम्पूर्ण कुल का नाश हो जावेगा और उस नाश के फलस्वरूप जो घातक परिणाम होंगे उनका वर्णन अर्जुन ने श्लोक 40 से 45 में किया है।

(3) तीसरा राष्ट्रीय व सामाजिक कारण जो अर्जुन की निगाह में था वह यह था कि जैसा कि ऊपर श्लोक 10 में परिमित व अपरिमित सेना के सम्बन्ध में विवेचन करके यह बताया गया है कि कौरव-पाण्डवों की सेनाएँ मिलाकर 18 अक्षौहिणी थी जिसकी संख्या करोड़ों पर पहुँचती है। इस नर-बलिदान से अनुमानतः इतनी ही स्त्रियाँ पुरुषहीन होती हैं जिसके कारण उनके चरित्रहीन (प्रदूषित) होने की सम्भावना थी। स्त्रियों के चरित्रहीन होने से संकर-सन्तानों का होना व शुद्ध आर्यरक्त का विलोप होना निश्चित था।

युद्ध के इन बहिरंग परिणामों को विचारने के कारण ही अर्जुन के सामने कर्म-जिज्ञासा रूप में यही विकल्प था कि युद्ध किया जाए या न किया जाए; और दोनों पक्षों में विजय चाहे किसी भी पक्ष की हो किन्तु वह विजय राष्ट्र के व समाज के हित में श्रेयस्कर होगी या नहीं, और यदि श्रेयस्कर हो तो कौरवों की विजय श्रेयस्कर होगी या पाण्डवों की। यदि पाण्डवों की विजय हुई तो वह नर-सहांर व सर्वनाश के पश्चात् होगी जो श्रेयस्कर नहीं हो सकती। इसलिए युद्ध न करके कौरवों की विजय स्वीकार कर लेना ही उत्तम व श्रेयस्कर है। “न पापे प्रतिपापः स्यात्” तथा “जयो वैरं प्रसृति” सिद्धान्त से प्रभावित हो “रुधिर प्रदिग्धान” भोगों को व राज्य-सुख को भोगना उचित न समझकर भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करना देश हित में उत्तम व श्रेष्ठ समझा और इन्हीं विचारों के कारण उसने मनु आज्ञा के विरुद्ध आततायी कौरवों को मारना उचित नहीं समझा। विदेश आततायियों के वनिस्पत अर्जुन स्वदेशी कौरव आततायियों को उत्तम समझता था और उनके अधीन भारत राष्ट्र को सुरक्षित रखना चाहता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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