गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय- 1
(अर्जुन विषाद-योग)
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अर्जुन उवाच
(28-30)
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण
युयुत्सुं समुपस्थितम्।।28।।
सीदन्ति मम गात्राणि
मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे
रोमहर्षश्च जायते।।29।।
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्
त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं
भ्रमतीव च मे मनः।।30।।
(28-30)
युद्ध हेतु आए इस स्वजन समुदाय को
देख समुपस्थित हे माधव! मेरा तो।।28।।
होता मुख शुष्क है सीदते[1] गात्र हैं
सकंप शरीर में होता रोमान्च है।।29।।
और हे कृष्ण! मेरा
अंग अंग जल रहा
चित्त भ्रमित हो रहा।
हाथ से गाण्डीव भी गिरा जा रहा।
खडा भी रहने को अशक्त हो रहा।।30।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शिथिल होना।
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