गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 150

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 1
(अर्जुन विषाद-योग)
Prev.png

अर्जुन उवाच
(28-30)
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण
युयुत्सुं समुपस्थितम्।।28।।

सीदन्ति मम गात्राणि
मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे
रोमहर्षश्च जायते।।29।।

गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्
त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं
भ्रमतीव च मे मनः।।30।।

(28-30)
युद्ध हेतु आए इस स्वजन समुदाय को
देख समुपस्थित हे माधव! मेरा तो।।28।।

होता मुख शुष्क है सीदते[1] गात्र हैं
सकंप शरीर में होता रोमान्च है।।29।।

और हे कृष्ण! मेरा
अंग अंग जल रहा
चित्त भ्रमित हो रहा।
हाथ से गाण्डीव भी गिरा जा रहा।
खडा भी रहने को अशक्त हो रहा।।30।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शिथिल होना।

संबंधित लेख

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः