गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
कर्म-योग-समन्वित वैदिक कर्म-काण्ड निःस्वार्थ तथा निष्काम भावना से हीन होकर सात्त्विक गुण से रहित हो गए थे और काव्य-कामना-समन्वित होकर स्वार्थ-परायण हो चुके थे जिसके कारण इन कर्मों में राग, द्वेष, वासना, काम, क्रोध, स्पृहा, इच्छा, आशा, तृष्णा आदि राजसी-तामसी गुणों की प्रबलता हो गई थी; अतः रजोगुण व तमोगुणोत्पन्न रागात्मक एवं कामात्मक हो जाने के कारण उस समय के वैदिक कर्मकाण्ड को भगवान कृष्ण ने “कलिल” कहा है और श्रुति-परायण होने की निन्दा की है तथा वेदों की फल-श्रुतियों को भ्रमात्मक कहा है[1] सच्चा कर्म-संन्यास क्या होता है? इसको न समझकर अर्जुन “संन्यास” का अर्थ संसार को छोड़कर राज्य, सुख-वैभव, भोग-विलास को छोड़कर तथा अपने क्षात्र-धर्म रूप युद्ध को छोड़कर भिक्षा द्वारा संन्यासियों का जीवन निर्वाह करना ही समझता था[2] अर्जुन के इस विकृत-ज्ञानोत्पन्न मिथ्या विचार को निरस्त करने के लिए और कर्म-संन्यास का सही अर्थ समझाने के लिए सर्वप्रथम भगवान कृष्ण ने यह समझाया कि “जिस कर्म-योग-मार्ग का उपदेश मैं आज युध्द भूमि में अर्जुन तुम्हें दे रहा हूँ वह कोई नया उपदेश नहीं है अपितु परम्परागत है और इस कर्म-योग का आचरण ऋषि, महर्षि, राजर्षि आदि करके मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं तथा सूर्य[3] को सर्वप्रथम यह कर्म-योग बताया गया था जिसके अनुसार सूर्य सृष्टि के आदि से अब तक अपना कर्तव्य-कर्म निष्काम, निःस्वार्थ तथा निर्लिप्त भाव से करता चला आ रहा है।[4] विवस्वान के अतिरिक्त मनु, जैगीषव्य, व्यास मुनि, शुक्र मुनि, उद्दालक ऋषि, गार्गय बालाकी, सुलभा, पंचशिख, आसुरी मुनि आदि ऋषि तथा इक्ष्वाकु, जनक, अश्वपति कैकेयराज, काशिराज अजातशत्रु आदि राजाओं द्वारा आचरित किया गया है और सिद्धि प्राप्त की गई है अतः इस कर्म-योग-मार्ग को असाध्य व दुष्कर नहीं समझना चाहिए।[5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 2 श्लोक 45, 46, 52 व 53
- ↑ अध्याय 1 श्लोक 32 से 35; अध्याय 2 श्लोक 5
- ↑ विवस्वान
- ↑ अध्याय 3 श्लोक 20; अध्याय 4 श्लोक 1, 2, 15
- ↑ अध्याय 3 श्लोक 20
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