गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1037

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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(17)
यस्य नाहंकृतो भावो
बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमांल्लोकान्
न हन्ति न निबध्यते

नहीं अहंकृत-भाव[1] है जिसको
बुद्धि भी जिसकी होती न लिप्त।
करदे हत भी यदि लोकों को
करता हत न होता निबद्ध[2]।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अहम् भाव, जो कुछ हूँ सो मैं हूँ
  2. करता हत न होता निबद्धः-
    जिस व्यक्ति को न तो अहम्-भाव होता है और न आसक्ति होती है उसके द्वारा किए हुए कर्म वायु-अग्निजल के कर्मों के समान होते हैं; जैसे वायु-अग्नि या जल से मृत्यु हो जाने पर भी इनको हत्या का पाप नहीं लगता वैसे ही आसक्ति तथा अहंकार रहित हिंसा का पाप मनुष्य को नहीं लगता।

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17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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