गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
मोक्ष-संन्यास-योग
।। श्लोक 12 का भावार्थ।। श्लोक 12 में अत्यागी अर्थात स्वार्थपरायण पुरुष के कर्म-फल का वर्णन है। श्लोक 9 में बताए अनुसार नियत कर्मों को कर्तव्य समझकर अनासक्ति से तथा फल की आशा न रखते हुए करना चाहिए क्योंकि कर्म का स्वरूपतः त्याग करना असंभव है। फलेच्छा-विरहित-कर्म ही शुद्ध कर्म होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति आसक्ति व फलेच्छा का त्याग नहीं करते उनके संचित-कर्म-फल;, इष्ट-अनिष्ट व कुछ इष्ट कुछ अनिष्ट मिले हुए; तीन प्रकार के होते हैं। यह कर्म-मिश्रण कल्याणकारी नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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