गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1029

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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।। श्लोक 12 का भावार्थ।।

श्लोक 12 में अत्यागी अर्थात स्वार्थपरायण पुरुष के कर्म-फल का वर्णन है। श्लोक 9 में बताए अनुसार नियत कर्मों को कर्तव्य समझकर अनासक्ति से तथा फल की आशा न रखते हुए करना चाहिए क्योंकि कर्म का स्वरूपतः त्याग करना असंभव है। फलेच्छा-विरहित-कर्म ही शुद्ध कर्म होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति आसक्ति व फलेच्छा का त्याग नहीं करते उनके संचित-कर्म-फल;, इष्ट-अनिष्ट व कुछ इष्ट कुछ अनिष्ट मिले हुए; तीन प्रकार के होते हैं। यह कर्म-मिश्रण कल्याणकारी नहीं होता।  

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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