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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पष्ठ शतकम्
हे वृन्दावन! मैं क्या करूँ? अखिल लोकधर्म-मार्ग का उल्लंघन करते हुए कुत्सित विषयों में प्रवेश करने वाली दुष्ट इन्द्रियों की संख्या भी थोड़ी नहीं है। उनको रोकने की शक्ति भी मुझमें नहीं हैं, इसलिए आपके प्रति अमार्ज्जनीय अपराध होता है और कहीं भी मेरे लिए सुख नहीं है, तुम्हारी शरणागत हूँ, मुझे त्याग नहीं करना, त्याग नहीं करना ।।49।।
‘अन्यत्र क्षणकाल भी मैं नहीं रह सकता।’ इसको अति गम्भीर विवेचना करने से मुझ मतिमन्द को अपराध लगता है। हा हा श्रीवृन्दावन! कुविषयों की आशा में लोक-धर्म त्याग करने वाले एवं यथेच्छचारी मुझ पर क्या आप कृपा करेंगे?।।50।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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