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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पष्ठ शतकम्
स्थावर-जंगम में दोष दृष्टि रहित होकर, किसी को भी उद्वेग न देकर बिना यत्न जो मिल जाय, उसे खाकर, चित्त से भी स्त्री जाति के प्रति न देखकर एवं श्रीराधामुरलीधर के उज्ज्वल यश का श्रवण-कीर्तन एवं स्मरण करते-करते जो मधुरबुद्धि पुरुष श्रीवृन्दावन में वास करता है, उस महाभाग्यवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।।47।।
हे श्रीवृन्दावन! आप अपनी माया का सम्वरण कीजिए, महाधीश्वर की कृपा से मुझे यहाँ और कोई भी भय नहीं है, किंतु आपकी माया मुझे कम्पायमान करती है, क्योंकि जो (माया) आपको एवं आप में अवस्थित जितनी सुख-चिद्घन वस्तुओं को अन्य प्रकार (प्राकृत) प्रतीयमान कराती है, उसे ही देखकर नष्ट बुद्धि पुरुष अपराध युक्त होकर दूर से ही अधोगति को प्राप्त होते हैं।।48।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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