विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः। वे पुरुष इस शरीर में कर्मों की सिद्धि चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं। कौन-सा कर्म? श्रीकृष्ण ने कहा, “अर्जुन! तू नियत कर्म कर।” नियत कर्म क्या है? यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। यज्ञ क्या है? साधना की विधि-विशेष, जिसमें श्वास-प्रश्वास का हवन, इन्द्रियों के बहिर्मुखी प्रवाह को संयमाग्नि में हवन किया जाता है, जिसका परिणाम है परमात्मा। कर्म का शुद्ध अर्थ है आराधना, जिसका स्वरूप इसी अध्याय में आगे मिलेगा। इस आराधना का परिणाम क्या है? ‘संसिद्धिम्’-परमसिद्धि परमात्म, ‘यान्ति ब्रह्म सनातमन्’-शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश, परम नैष्कम्र्य की स्थिति। श्रीकृष्ण कहते हैं-मेरे अनुसार बरतनेवाले लोग इस मनुष्य-लोक में कर्म के परिणााम परम नैष्कम्र्यसिद्धि के लिये देवताओं को पूजते हैं अर्थात् दैवी सम्पद् को बलवती बनाते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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