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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दीतुम्हारे हाथों से मरने में मुझे लाभ-ही-लाभ है। इस लोक में मुझे यश मिलेगा और परलोक में कल्याण प्राप्त होगा। तुम्हारे द्वारा मरने पर तो न जाने मेरी कितनी कीर्ति होगी, तुम मुझे मारने दौड़े केवल इसी से मेरी प्रतिष्ठा और कीर्ति सहस्त्र-सहस्त्र गुना बढ़ गयी।' भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-'भीष्म! तुम्हें उचित था कि जुआ प्रारम्भ होने के समय ही दुर्योधन को रोकते। वह समय बीत गया तो युद्ध के प्रारम्भ में रोकते और यदि कौरव तुम्हारा उपदेश न सुनते तो तुम्हारा कर्तव्य था कि तुम उन्हें छोड़ देते। परंतु तुमने ऐसा नहीं किया, उल्टे युद्ध में उनका ही पक्ष लिया, यदि तुम उनके पक्ष में नहीं होते तो आज यह भयंकर लड़ाई न होती।' भीष्म ने कहा-'जनार्दन! पता नहीं तुम्हारी ही इच्छा पूर्ण हो रही है, सब लोग तुम्हारे ही इशारे पर नाच रहे हैं। मैंने एक बार नहीं, दो बार नहीं-अनेकों बार कौरवों को समझाया; परंतु उन्होंने मेरी बात नहीं मानी। तुम्हारी इच्छा प्रबल है। तुम्हारी ही इच्छा का यन्त्र होकर मैं कौरवों के पक्ष में लड़ रहा हूँ।' भीष्म यों कह ही रहे थे कि अर्जुन ने रथ से कूदकर श्रीकृष्ण को पकड़ लिया। उस समय श्रीकृष्ण बड़े वेग से भीष्म की ओर बढ़े जा रहे थे, अर्जुन के रोकने पर भी वे नहीं रुके। उनको खींचते हुए भीष्म की ओर चले। दसवें पग पर जाकर अर्जुन अपने पैर जमा सके और उन्हें रोक सके। अर्जुन ने गिड़गिड़ाकर भगवान् से कहा-'प्रभो! आप हम लोगों के लिये अपनी प्रतिज्ञा मत तोड़िये। मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि अब कोमल युद्ध नहीं करूँगा, आपकी आज्ञा से गुरुजनों का भी संहार करूँगा।' अर्जुन की प्रतिज्ञा और शपथ सुनकर श्रीकृष्ण शान्त हो गये और एक क्षण तक हाथ में चक्र लिये खड़े रहकर फिर अर्जुन के रथ पर लौट आये और घोड़ों की बागडोर संभाल ली। फिर तो अर्जुन ने इतना भीषण युद्ध किया कि न केवल युद्धक्षेत्र में- सब लोकों में कोलाहल मच गया, सब-के-सब ठिठक-से गये। केवल भीष्म-अकेले भीष्म ही अर्जुन के सामने ठहर सके। इस संग्राम में न जाने कितने दैत्यों के प्राण गये, बहुत कुछ पृथ्वी का भार कम हुआ। भगवान् की इच्छा-उनका संकल्प पूरा होने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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