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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
चौदहवाँ अध्याय
श्रीभगवानुवाच- व्याख्या- क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग का ज्ञान सम्पूर्ण लौकिक-पारमार्थिक ज्ञानों से उत्तम तथा सर्वोत्कृष्ट है। यह ज्ञान परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का निश्चित उपाय है, इसलिये इस ज्ञान को प्राप्त करने वाले सब-के-सब साधक परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाते अर्थात मुक्त हो जाते हैं। मुक्त होने पर क्रिया (परिश्रम) तथा पदार्थ (पराश्रय)-का अत्यन्त अभाव हो जाता है और एक चिन्मय सत्ता (विश्राम)-के सिवाय कोई जड़ वस्तु रहती ही नहीं, जो वास्तव में है। इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता: । व्याख्या- कारण शरीर के सम्बन्ध से ‘निर्विकल्प स्थिति’ होती है और कारण शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर (स्वयं में) ‘निर्विकल्प बोध’ होता है। निर्विकल्प स्थिति तो सविकल्प में बदल सकती है, पर निर्विकल्प बोध सविकल्प में कभी नहीं बदलता। तात्पर्य है कि निर्विकल्प स्थिति में तो परिवर्तन होता है, पर निर्विकल्प बोध में कभी परिर्वतन नहीं होता, वह महासर्ग अथवा महाप्रलय होने पर भी सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। महासर्ग और महाप्रलय प्रकृति में होते हैं। प्रकृति से अतीत तत्त्व (परमात्मा)-की प्राप्ति होने पर महासर्ग और महाप्रलय कोई असर नहीं पड़ताद्ध क्योंकि ज्ञानी महापुरुष का प्रकृति से सम्बन्ध ही नहीं रहता। प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होने को ‘आत्यन्तिक प्रलय’ भी कहा गया है। तात्पर्य है कि प्रकृति के कार्य शरीर को पकड़ने से मनुष्य परतन्त्र हो जाता है, जन्म-मरण में पड़ जाता है; परन्तु शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर वह स्वतन्त्र हो जाता है, निरपेक्ष-जीवन हो जाता है, सदा के लिये जन्म-मरण से छूट जाता है। वह परमात्मा की सधर्मता को प्राप्त हो जाता है अर्थात जैसे परमात्मा सत-चित-आनन्दरूप हो जाता है, जो कि वास्तव में वह पहले से ही था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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