गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
वैदिक यज्ञ-याग करने वाले कर्म-काण्डी उपासकों को उनके पुण्य-फल के अनुसार इन्द्रलोक व स्वर्ग तो मिल जाता है किन्तु उनकी उपासना काव्य व फलाशा-युक्त होने के कारण उनका स्वर्ग-सुख चिरस्थायी नहीं होता और पुण्य-फल के क्षय हो जाने अथवा भुगत लेने के पश्चात उनको पुनः पुनर्जन्म व आवागमन के चक्कर में पड़ना होता है[1] यह दशा राजसी तथा तामसी उपासकों की होती है।[2] रजोगुण और तमोगुण स्वभावाभिभूत होकर कामना, वासना तथा फलेच्छा से प्रेरित हो मनुष्य अपनी इच्छा, वासना व कामना के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं की उपासना करता है[3] और अज्ञान के कारण यह समझता है कि जो भी फल उस उपासना का मिलता है वह फल वह देवता विशेष ही देता है। जिस सुख-दुःख-रूप कर्म-फल को उपास्यदेव द्वारा दिया जाना समझकर मनुष्य आधिदैविक सुख-दुःख. कहता है वह सुख या दुःख यदि ज्ञान-चक्षु द्वारा अध्यात्म-दृष्टि से देखा जावे तो वह परम ब्रह्म परमेश्वर[4] द्वारा ही निर्धारित किया हुआ प्रतीत होगा। अनासक्त भावना से फलाशा त्याग कर निष्काम बुद्धि से श्रद्धा-पूर्वक व अनन्य-भक्ति से जो उपासना देवताओं की की जाती है वह उपासना यथार्थ में परम ब्रह्म परमेश्वर की उपासना होती है और उस भक्त की भक्ति-भावना उपास्य देव प्रति परमेश्वर द्वारा ही स्थिर की जाती है तथा परमेश्वर ही उसके फल का देने वाला होता है[5]। भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को समझाने का तात्पर्य यही है कि जो व्यक्ति मुझ व्यक्त-रूप को ही अव्यक्त परम ब्रह्म परमात्मा अधिभूत, अधिदैव तथा अधियज्ञ मानकर[6] अनन्य मन से श्रद्धान्वित व संशय-रहित होकर मेरी उपासना एकतान-चित्त व अनन्य मन से निरन्तर करता है वह ब्रह्ममय हो जाता है[7] अतः जो भी क्रिया, व्यापार, चेष्टा, कर्म व आचरण, भोजन, जलपान आदि जो कुछ भी किए जाते हैं वह समस्त परमब्रह्म को अर्पण करके करने से परमानन्द, मोक्ष तथा अक्षय सुख प्राप्त होता है[8]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 9 श्लोक 20, 21; - अध्याय 14 श्लोक 18)
- ↑ अध्याय 14 श्लोक 18)
- ↑ अध्याय 14 श्लोक 7 व 8; - अध्याय 7 श्लोक 20)
- ↑ अदृष्ट दैव
- ↑ अध्याय 7 श्लोक 20 से 22)
- ↑ अध्याय 7 श्लोक 30
- ↑ अध्याय 8 श्लोक 14, 15, 16, 21, 22 व 28; - अध्याय 9 श्लोक 13 व 22 से 25
- ↑ अध्याय 9 श्लोक 27, 28, 29, 31;- अध्याय 12 श्लोक 7 व 16
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