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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
सप्तदश: सन्दर्भ:
17. गीतम्
चरणकमल-गलदलक्तक-सिक्तमिदं तव हृदयमुदारम्। अनुवाद- आपके प्रशस्त हृदय पर वरांगना के चरण-कमलों के अलक्तक रस से रञ्जित लोहित वर्ण चिह्न ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो आपके अन्त:करण में अवस्थित बद्धमूल मदन-वृक्ष के अरुण-वर्ण नूतन पल्लव बाहर अभिव्यक्त हो रहे हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [तवान्वेषणे भ्रमणात् वने ममेदं वपु: कण्टकै: क्षतं नतु नखक्षतानीमानीति चेत् तन्न]- इदं तव उदारं (मनोहरं) हृदयं [तस्या:] [प्रेमोल्लासत:] चरण-कमल-गलदलक्तक -सिक्तं (चरण-कमलाभ्यां गलता स्रवता अलक्तकेन सिक्तम्); अतएव मदनद्रुम-नव-किशलय-परिवारं (मदनद्रुमस्य हृदयस्थस्य कामवृक्षस्य नवकिशलय-परिवारं बालपल्लवसमूहं) [हृदयात्] बहि: दर्शयतीव (प्रकटयतीव) ॥4॥
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