गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 334

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

Prev.png

पद्यानुवाद
कमल चरण के स्त्रवित अलकांर से उर भीगा (क्या सीखे)?
अन्तर का स्मर-तरु-किसलय सा छाया बाहर दीखे॥

बालबोधिनी- श्रीराधा व्यंग्यपूर्वक श्रीकृष्ण से कहती हैं अहो, आपका हृदय अति उदार है- कैसा मनोहर स्वरूप धारण किया है! आपने तो अति प्रेमोल्लास से औदार्य को अभिव्यक्त करते हुए उस कामिनी के चरणकमलों को ही हृदय में धारण कर लिया है। उसके चरणों से वित आलता-रस का लाल रंग आपके वक्ष:स्थल को रञ्जित कर रहा है। श्याम-वर्ण पर जावक-रस का लाल-वर्ण तुम्हारी शोभा को और भी अभिवृद्धि कर रहा है। ऐसा लगता है, तुम्हारा हृदयस्थित अनुराग ही कामतरु के नव-नव किसलयों की भाँति लाल वर्ण के रूप में बाहर प्रकाशित हो रहा है। तुम्हारे हृदय में विद्यमान कामवृक्ष के नवीन पल्लव बाहर निकल रहे हैं। यह तुम्हारे अन्त:करण का निषिद्ध प्रेमव्यापार मदन-वृक्ष के रूप में तुम्हारी हृदयस्थली पर उग आया है। इन चरण-चिह्नों के रूप में इस वृक्ष के नये-नये लाल-लाल पल्लव दिखायी दे रहे हैं। तुम उस अनुराग को छिपा नहीं पा रहे हो। तुम्हारे लिए यहाँ कुछ नहीं है, जाओ!

कुछ टीकाकारों के मतानुसार इस कथन के द्वारा श्रीराधा का अभिप्राय यह है कि श्रीकृष्ण द्वारा उस नायिका के साथ क्रोध नामक बन्धविशेष से रमण किया गया है। श्रीकृष्ण ने अपनी निर्मलता प्रस्तुत करते हुए कहा यह तो गैरिकादि धातुओं का चित्र चिह्नों है, मैंने किसी भी अंगना के चरणकमलों को धारण नहीं किया, न ही किसी के महावर को हृदय में लगाया है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः