गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 299

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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रमयति सुभृशं कामपि सुदृशं खलहलधरसोदरे।
किमफलमवसं चिरमिह विरसं वद सखि! विटपोदरे
रमते यमुना-पुलिन वने..... ॥7॥[1]

अनुवाद- हलधर के सहोदर, अविवेकी, गँवार, खल वे श्रीकृष्ण निश्चित रूप से किसी सुनयना का प्रगाढ़ आलिंगन कर उसके साथ रमण कर रहे हैं, तब सखि! तुम्हीं बताओ, मैं इस लतानिकुंज में कब तक विरस भाव से बैठी-बैठी प्रतीक्षा करती रहूँ?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, खल-हलधर-सोदरे (खल: धूर्त्त: हलधरस्य बलदेवस्य सोदर: तस्मिन् हलधरस्य इति सोल्लुण्ठनोक्ति:-ला लभृत:-सूतरामविदग्धस्य इत्यर्थ:) कृष्णे कामपि सुदृशं (सुलोचनां कामिनीं) सुभृशं (प्रगाढ़ं) रमयति [सति] इह विटपोदरे (वनमध्ये) अफलं (विफलं) विरसं (रसहीनं यथा तथा) किं (कथं) अहम्र अवसम्र (अवस्थितास्मि) इत्येतत् वद (कथय) मामभिसार्य अन्यया सह रमणात् हरे: खलत्वम्] ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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